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कविता

देख रहे हो गाँव अभी

अनिल पांडेय


गाँव
सुख की चादर ओढ़े
वंशज तुम्हारे
भूल गए हैं
दुख का जीवन
भविष्य पथ का आगाज करता है

यह यहीं दिखा है
भर पेट खाने वालों को
भूखा रहना ही लिखा है
महुआ जामुन आम छोड़ कर
पिज्जा बर्गर खाना सिखा है
ठुकरा कर पूर्वज की वाणी
अपनी वह मन की करता है

देख रहे हो गाँव अभी
पथरीले घर में रहने वाले
सेहक रहे हैं छप्पड़ के छाया को
उन्हें कहाँ आभास सत्य की
धूल दूब का स्पर्श
कंकडीले पथ से सुंदर होता है

भूल रहे सब जितना तुमको
अपनी जड़ से विलग हो रहे
अलग थलग पड़कर जीवन से
जन मन से दूर सिसक रहे
जो संगति में है बना तुम्हारे
अखंड सुख का भोग करता है


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